रविवार, 26 नवंबर 2017

अपने स्वास्थ का ख्याल कब रखेगीं महिलाएं?

महिलाओं के स्वास्थ को लेकर हमारे समाज में हमेशा से लापरवाही, अज्ञानता, ढिलाई और अनुत्तरदायीता का माहौल रहा है। इसका बहुत बड़ा कारण गरीबी, अशिक्षा के साथ-साथ लैंगिग असमानता के चलते भेदभावपूर्ण व्यवहार, आर्थिक रूप से दूसरों पर आश्रित होना है। इसके चलते महिलाएं घर में अपने स्वास्थ के बारे में बात नहीं कर पाती। समाज में दोयम दर्जे की जिंदगी जीने वाली महिलाएं और लड़कियां अपने सभी फैसलों के लिए जहां पुरुष वर्ग पर आश्रित होती हैं, वहीं उनसे इस बात की आशा नहीं जा सकती कि वे अपने स्वास्थ जैसी मामूली बातों के लिए जद्दोजहद कर सकेंगीं। यहीं कारण है कि देश में हर वर्ग की स्त्री अपने स्वास्थ को लेकर न केवल लापरवाह हैं बल्कि एक हद तक उदासीन भी है। ऐसा नहीं हैकि मैट्रो सिटी में महिलाएं न केवल अपने पैरों में खड़ी हैं, बल्कि एक हद तक काफी पढ़ी-लिखी भी हैं, वे भी अपने स्वास्थ को लेकर ढिलाई बरतती हुई मिल जाएगी। इसका कारण कहीं न कहीं उनके आसपास का माहौल और बचपन से उनकी परवरिश जिम्मेदार है, जिसके कारण वे अपने खानपान और अपने शरीर के प्रति अनुत्तरदायी हो जाती हैं। 
देश में महिलाओं की एक बड़ी समस्या कुपोषण है। सही ढंग से खानपान न कर पाने के कारण महिलाएं और किशोर लड़कियां कुपोषण की समस्या को झेल रही हैं। हाल ही में ग्लोबल न्यूट्रीशन रिपोर्ट-2017 आई है। इसमें बताया गया है कि देश की आधे से ज्यादा प्रजनन क्षमता वाली महिलाएं एनीमिक यानी रक्त अल्पतता से जूझ रही हैं। यह अध्ययन 140 देशों की महिलाओं के स्वास्थ संबंधी आंकड़ों पर विश्लेषण वर्ल्ड हेल्थ एसेम्बली ने प्रस्तुत किया। रिपोर्ट में बताया गया कि 2016 में यह संख्या 48 प्रतिशत था, जो अब बढ़कर 51 प्रतिशत हो गया। इसी तरह डब्ल्यूएचओ के 2011 के आंकड़ों के अनुसार भारत में 54 फीसदी गर्भवती महिलाएं एनीमिक हैं, यह संख्या पाकिस्तान के 50 फीसदी, बांग्लादेश के 48 फीसदी, नेपाल के 44 फीसदी, थाइलैंड के 30 फीसदी, इरान के 26 फीसदी के मुकाबले अधिक है। वास्तव में एनीमिया अपने आप में कोई बड़ी बीमारी नहीं है। मामूली खानपान में ध्यान देकर इस पर नियंत्रण किया जा सकता है। लेकिन तमाम सरकारी प्रयासों के बाद भी यह समस्या दशकों से बनी हुई है। 
हमारे देश में महिलाओं के एनीमिक होने के कई समाजिक-सांस्कृतिक कारण हैं। पितृसत्तात्मक समाज होने के कारण महिलाओं और लड़कियों के साथ तमाम तरह के भेदभाव किए जाते हैं। बहुत से समाजों में रूढ़ियों और खाने-पीने के कई तरह के प्रतिबंध होते हैं। बचपन से लड़कियों के प्रति खाने-पीने को लेकर होने वाले भेदभाव से भी उनमें जन्मजात पोषक तत्वों की कमी हो जाती है। किशोरावस्था में जब बच्चियों को मासिकधर्म होने लगता है तब उन्हें पोषक तत्वों जैसे प्रोटीन, आयरन, मिनरल की कहीं ज्यादा आवश्यकता होती है, लेकिन उन्हें यह सब उतनी मात्रा में उपलब्ध नहीं हो पाता है। एक प्रजननकाल वाली महिलाओं में प्रत्येक महीने मासिकधर्म के तहत 40 मिली. खून शरीर से निकल जाता है, इसके साथ उनके शरीर से लगभग 0.6 मिलीग्रा. आयरन भी नष्ट हो जाता है। इसलिए एक महिला के लिए आयरन की आवश्यकता कहीं अधिक बढ़ जाती है। शादी के बाद भी महिलाओं को ससुराल पक्ष की अधिक जिम्मेदारी के चलते अपने स्वास्थ के प्रति लापरवाह होती जाती है। कई घरों में प्रजनन या बेटे न पैदा कर पाने के कारण होने वाला भेदभाव भी उनके स्वास्थ्य पर काफी असर डालता है। कम उम्र में शादी और जल्दी बच्चा पैदा करने के कारण भी उनका स्वास्थ काफी हद तक प्रभावित होता है। इसलिए उनमें पोषण की कमी और एनीमिया हो जाना ज्यादा बड़ी बात नहीं लगती है।
सवाल उठता है कि जो महिलाएं घर का इतना ख्याल रखती हैं, वे खुद के प्रति इतनी लापरवाह क्यों हो जाती हैं? यह भी देखा जाता है कि महिलाएं घर के दूसरे सदस्यों के न होने पर अपने लिए खाना तक नहीं पकाती। जो भी थोड़ा बहुत होता है, उसी को खाकर संतुष्ट हो जाती हैं। उन्हें लगता हैं कि यह उनके लिए पर्याप्त है। कई घरों में यह परंपरा के तहत होता है कि महिलाएं घर के पुरुषों और बड़े-बूढ़े को खिलाने के बाद खाती हैं। इसी कारण से उन्हें पर्याप्त और समय पर भोजन नहीं मिल पाता है। कई बार खाने से अनिच्छा भी हो जाती है। अगर इस दौरान भोजन कम पड़ जाए, तो आधा-अधूरा खाना खाकर उठ जाती हैं। आज भी गांव-देहात में शादी या दूसरे समारोहों में पंगत में महिलाओं को पुरुषों के बाद खिलाने का रिवाज है। ये कुछ ऐसी छिपी वजहें हैं जिसके कारण भी महिलाओं में पोषक तत्वों की कमी हो जाती है।
देश के नागरिक अस्वस्थ्य हो तो देश को आर्थिक नुकसान भी उठाने पड़ते हैं। इसका असर देश की जीडीपी पर भी पड़ता है। 2003 में फूड पॉलिसी में एक पेपर प्रस्तुत किया गया था, जिसने बताया कि आयरन की कमी से होने वाली एनीमिया से देश को 0.9 फीसदी जीडीपी का नुकसान उठाना पड़ता है। यह नुकसान डालर में 20.25 बिलियन और रुपयों में 1.35 लाख करोड़ से ऊपर था। यह आकलन वर्ल्ड बैंक ने 2016 की भारत की जीडीपी से निकाला था। चूंकि एनीमिया प्रमुख रूप से बच्चों और महिलाओं को ज्यादा प्रभावित करता है, इसलिए इस कारण मातृ मृत्यु दर और बीच में ही स्कूल छोड़ने के मामले सामने आते हैं। इससे राष्ट्र को बड़ी क्षति उठानी पड़ती है। 2014 के न्यूट्रिशन में प्रकाशित एक स्टडी के अनुसार मातृ मृत्यु से संबंधित कारणों में 50 फीसदी जिम्मेदार कारण एनीमिया ही होता है। साथ ही गर्भावस्था में भ्रूण मृत्यु, कम वजन के बच्चे, जन्मगत असमान्यताएं और बीच में ही डिलीवरी होने का कारण भी एनीमिया से संबंधित होता है। एनीमिया से बच्चों के आईक्यू लेबल को भी नुकसान पहुंचाता है। 

देश इस समस्या से लड़ने के लिए काफी प्रयासरत है। 1970 से ही यहां पर एनएनएपीपी यानी राष्ट्रीय पोषणात्मक रक्तअल्पता रोकथाम कार्यक्रम चल रहा है। तीन वर्ष पहले इसने साप्ताहिक आयरन व फोलिक एसिड संबंधित कार्यक्रम चलाया, जिसके तहत किशोरियों को आयरन से संबंधित गोली दी जाने की व्यवस्था की गई थी। फिर भी, स्वास्थ संबंधी विशेषज्ञों का मानना है कि एनएनएपीपी की इस तरह की मुहिम पर्याप्त नहीं है। महिलाओं में आयरन की कमी कुपोषण और गरीबी से संबंधित है। भारत सरकार ने राष्ट्रीय स्वास्थ मिशन के तहत 36,707 करोड़ का आवटन किया है। यह वास्तविक आवश्यकता से काफी कम है। इसके साथ सरकार ने 2.07 लाख करोड़ एक दूसरी योजना महत्मा गांधी ग्रामीण रोजगार गारंटी के लिए खर्च किए है, ताकि गरीबी से लोग लड़ सके, पर इस योजना की भी अपनी विवशताएं हैं। जनवरी 2016 की इंडिया स्पेंड की रिपोर्ट इस संबंध में विस्तार से बताती है। 

(पूरा लेख युगवार्ता साप्ताहिक में प्रकाशित)

सोमवार, 13 नवंबर 2017

#मी टू : टूट रही चुप्पी

बात निकलेगी तो दूर तलक जाएगी को यूं भी कहें कि आवाज उठेगी तो दूर तक जाएगी’, तो इसके अर्थ में कोई अंतर नहीं आएगा। मौजूं सिर्फ यही है कि आवाज उठनी चाहिए। शुरूआत हुई, तो परिणाम भी निकलेगा। इधर, हैशटैग मी टू के साथ जो अभियान महिलाओं ने चलाया है, उससे समस्या का अंत हो या न हो, पर चुप्पी पर लगा ताला तो हट ही गया। अपने साथ हुए यौन उत्पीड़न पर अपनी चुप्पी तोड़ते हुए फिल्म हॉलीवुड अभिनेत्री एलिसा मिलानो ने सोशल मीडिया को माध्यम बनाया और लोगों से हैशटैग मी टू के सा महिलाओं से अपील की कि वे भी अपने साथ हुए यौन दुर्व्यहारों पर अपनी चुप्पी तोड़ें। कुछ देर बाद देखते ही देखते दुनिया भर की महिलाओं और पुरुषों ने अपनी प्रतिक्रिया में हैशटैग मी टू के साथ अपनी आपबीती बताई। इस हैशटैग के साथ इस तरह की घटनाएं बयां करने वाले कोई साधारण लोग नहीं थे, बहुत संख्या में जाने माने लोग भी शामिल थे, जिन्होंने अपनी जिंदगी में कभी न कभी यौन उत्पीड़न सहा था। हैशटैग मी टू के साथ एक ही दिन में 12 मिलियन लोगों ने अपने अनुभवों को शेयर किया। खुद अभिनेत्री की पोस्ट पर ही हजारों लोगों ने उत्तर दिया, अपने अनुभव साझा किए।
हॉलीवुड के मशहूर प्रोड्यूसर हार्वे विंस्टीन पर अभिनेत्री एलिसा मिलानो ने जो यौन उत्पीड़न के आरोप लगाए, उसके परिप्रेक्ष्य में न्यूयार्क टाइम्स ने बताया कि इस महीने विंस्टीन ने कोर्ट के बाहर आठ महिलाओं के साथ अपने विरूद्ध लगाए गए यौन शोषण के आरोपों पर समझौता किया है। इसी दौरान एशिया अर्जेंटो, लुसिया एवांस, लिसे एंटोनी और रोज मैकगॉउन ने हॉलीवुड के इस शहंशाह पर रेप के आरोप लगाए। हाई-प्रोफाइल हॉलीवुड अभिनेत्रियों जिनमें एंजोलिना जॉली, केट बिंस्लेट, ग्वेनेथ पाल्ट्रो ने भी विंस्टीन के खिलाफ उत्पीड़न के आरोप लगाए। अभिनेत्री एलिसा के चुप्पी तोड़ने के साथ एक ही व्यक्ति के खिलाफ इतनी महिलाओं, कहा जाए तो समृद्ध महिलाओं ने अपनी चुप्पी तोड़ी। अगर अभिनेत्री एलिसा भी चुप रहती तो…? तो कुछ नहीं होता। एक ऐसे व्यक्ति के बारे में, हम इतने घिनोने पक्ष को नहीं जान पाते। यही होता है और यही होता आ रहा है। क्योंकि महिलाएं किसी न किसी दबाव वश अपने साथ हुए यौन उत्पीड़न की बातें घर तक में नहीं कह पाती हैं। या घर में उन्हें इज्जत का वास्ता देकर चुप करा दिया जाता है। वास्तविकता तो यह कि उनके साथ ऐसी घटनाएं घर पर, बेहद सुरक्षित लोगों के घेरे के बीच ही होती हैं। इस बात को हाईवे फिल्म में बहुत ही संवेदनशील तरीके से दिखाया गया था।
हॉलीवुड अभिनेत्री एलिसा के इस अभियान की गूंज दुनिया भर में हो चुकी है। मी टू हैशटैग के साथ भारत में भी इस तरह के अभियान को सोशल मीडिया पर जमकर प्रतिक्रिया मिली। सोशल मीडिया का उपयोग करने वाली काफी महिलाओं ने हैशटैग मी टू के साथ अपने साथ होने वाली घटनाओं पर खुलकर लिखा। चर्चित कॉमेडियन मल्लिका दुआ ने भी बचपन में अपने साथ हुई यौन शोषण की घटना का खुलासा किया है। कुछ पुरुषों ने भी इसके समर्थन में प्रतिक्रिया दी। इस समस्या का अंदाजा इस बात से ही लगाया जा सकता है कि हैशटैग मी टू के साथ मिलने वाली प्रतिक्रियाओं में चौबीस घंटों में ट्वीटर पर पांच लाख ट्वीट्स और फेसबुक पर बारह मिलियन पोस्ट लिखे गए।
दिल्ली के निर्भया कांड के बाद जिस मुखरता से यौन हिंसा के विरोध में अवाजें उठी थी, उससे लग रहा था कि ऐसी घटनाओं में कुछ कमी आएगी, लेकिन ऐसा नहीं है। देश में तो बिलकुल नहीं है। आंकड़े दूसरी ही कहानी कहते हैं। नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो के अनुसार देश में 2010 में 22,000 बलात्कार के केस दर्ज हुए, वहीं 2014 में बढ़कर 36,000 हो गए यानी पूरे 30 प्रतिशत की बढ़त्तरी हुई। एनसीआरबी ने ही 2016 में बताया कि बलात्कार के 95.5 केस में पीड़िता रेपिस्ट को जानती थी। ताजा आंकड़ों में 2016 में ही 4,437 बलात्कार के केस दर्ज हुए थे। इसी से समझा जा सकता है कि महिलाओं के प्रति यौन उत्पीड़न, शरीरिक हमले, विदेश में लड़कियां भेजना, पति और संबंधियों द्वारा हिंसा, अपहरण के बाद बलात्कार और हत्या के सभी प्रकार के मामले मिलाकर कितने होंगे? इस हैशटैग के बीच ही में थाम्पसन रिटर्नस फांउडेशन ने अपने एक पोल में बताया कि दिल्ली यौन हिंसा के मामले में सबसे असुरक्षित जगह है। दिल्ली में महिलाएं रेप, यौन उत्पीड़न और यौन हमलों के प्रति हमेंशा सशंकित रहती हैं। दिल्ली को पहले भी रेप राजधानी कहा गया है। यह सर्वे संसार की 19 बड़े शहरों में जून और जुलाई 2017 के दौरान किया गया। यह आंकड़े निर्भया केस के पांच वर्ष होने की वर्षी से कुछ समय पहले ही आए हैं। यह आश्चर्य की बात है कि कराची और टोक्यो दिल्ली से बेहतर जगहें हैं।
2013 में मशहूर सितार वादक पं. रविशंकर की बेटी अनुष्का ने जब इस बात का खुलासा किया कि बचपन में उसके एक करीबी जानकार व्यक्ति ने उनका यौन शोषण किया तो इस पर विश्वास किया जाना मुश्किल हो रहा था। अब हैशटैग मी टू के बहाने जब इतनी घटनाएं सामने आई हैं, तब इस पर हम विश्वास करें या न करें, पर इस समस्या की गहराई तक जाना होगा। अपने आसपास के चेहरों का पहचानना होगा, जो इस तरह की हरकतों को अंजाम देकर हमारे बीच अच्छे मुखौटों के बीच छुपे बैठे हुए हैं। इनके चेहरों से अगर हिम्मत करके मुखौटे ही हटा दिए जाए, तो समस्या का काफी बड़ा समाधान निकल सकता है, इसके लिए बस चुप्पी ही तोड़नी होगी। कुछ हैशटैग मी टू का मार्ग अपनाना होगा। घर पर बताना होगा, सबको बताना होगा। कुछ दिन पहले फेसबुक पर महिलाओं ने अपनी डीपी काली रखकर यौन हिंसा के खिलाफ अपना विरोध दर्ज किया था। सोशल मीडिया पर उनकी काली डीपी इस बात का संकेत दे रही थी कि महिलाएं केवल सोशल मीडिया में ही न दिखे, तो यह जगह कितनी बदरंगीन हो जाएगी। फिर पूरे संसार से ही महिलाएं गायब हो जाए तो…। क्या ऐसी स्थिति आ सकती है?


(लेख युगवार्ता साप्ताहिक में प्रकाशित है। आंशिक रूप से यहां प्रस्तुत है।)