रविवार, 6 मार्च 2011

कोख, कूड़ेदान और इतिहास

इतिहास के नाम पर मुझे
सबसे पहले याद आते हैं वो अभागे
जिनके खून से
लिखा गया इतिहास
जो श्रीमंतों के हाथियों के पैरों तले
कुचल दिये गये
जिनकी चीत्कार में
डूब गया हाथियों का चिघाड़ना।
वे अभागे अब कहीं नहीं हैं इतिहास में
जिनके पसीने से जोड़ी गयी
भव्य प्राचीरों की एक-एक ईंट
पर अभी भी है मिस्र के पिरामिड
चीन की दीवार और ताजमहल।
सारे महायु(ों के आयुध
वे अभागे अब
कहीं नहीं हैं इतिहास में।
सारे पुरातत्ववेत्ता जानते हैं कि
जिनकी पीठ पर बने बकिंघम पैलेस जैसे महल
वे अभागे, भूत-प्रेत-जिन्न
कुछ भी नहीं हुए इतिहास के।
इतिहास के नाम पर मुझे
याद आते हैं वे अभागे बच्चे
जो पाठशालाओं में पढ़ने गये
और इस जुर्म में
टाँग दिये गये भालों की नोक पर।
इतिहास के नाम पर मुझे
याद आती हैं वे अभागी बच्चियाँ
जो राजे-रजवाड़ों के धायघरों में पाली गयीं
और जिनकी कोख को कूड़ेदान बना दिया गया।
इतिहास के नाम पर मुझे
याद आती हैं वे अभागी
घसिआरिन तरुणियाँ
जिनसे राजकुमारों ने प्रेम किया
और बाद में उनके सिर के बाल
किसी तालाब में सेवार की भांति तैरते मिले।
इतिहास नायकों का भरण-पोषण
करने वाले इनके अभागे पिताओं के नाम पर
नहीं रखा गया
हमारे देश का नाम भारतवर्ष!
हमारी बहुएँ और बेटियाँ
जिन्हें अपनी पहली सुहागिन-रात
किसी राजा-सामंत या मंदिर के पुजारी के
साथ बितानी पड़ी
इस धरती को
उनके लिए नहीं कहते भारत माता।
( अतीत से सवाल करती दिनेश कुशवाह की कविता "कोख, कूड़ेदान और इतिहास" पाखी के फरवरी अंक में प्रकाशित हुई )

रविवार, 6 फ़रवरी 2011

यमुना के पुल पर


दिल्ली
यमुना के पुल पर
छोटे छोटे बच्चे खेल रहे है
रेलिंग के इर्द गिर्द
बेखौफ ...
वैसे ही दौड़ रही है
पुल पर
ब्लू लाइन बसें
कारें स्कूटरअदि
बच्चो की मांओं ने
सजा रखी है
अपनी अपनी दुकानें
फ्रेश रिटेलर की तरह
ताजी सब्जियां -फल और
हरी धनियाँ और हरी मिर्च
एक कनात में सजी हुई
सब्जी मंडी जैसा कोई शोर गुल नहीं
मौन ही जिनका अभिजातपन है..
सभ्रांत घरों में जानें को उत्सुक
फल और सब्जियां....
कारों के रुकने के इंतजार में है

छोटे छोटे बच्चे खेल रहे है
बेखौफ .यमुना के पुल पर
उनकी मांएं बेच रही है
ताजी सब्जियां और फल
बेखौफ यमुना के.पुल पर
.बेखौफ गाड़ियाँ दौर रही है
यमुना के पुल पर
पर यमुना बह रही है
अपने तटबंधो में
डरते-डरते...
दिल्ली में !!!

रविवार, 30 जनवरी 2011

चेहरों की बेचेनी


शाम के समय
घर लौटते हुए चेहरों
की बेचेनी
सिमट आती है
पैरों में!!!
तेज चलने के लिए..

कभी कभी गाड़ी के पहियों में भी
ऐसी ही बेचैनी मिलती है
जब ख़ाली सड़क को देखती है.
तेज दौड़ने के लिए..

घर लौटने वाले चेहरों की
बेचेनी तब ...
मुस्कराहट में बदल जाती है
जब ....
घर जाने वाली बस
समय पर आ जाती है .