शनिवार, 18 जून 2016

बुंदेलखंड सूखा : मतलब अकाल, मतलब भूख, मतलब मौत

’इक बगल में चाँद होगा, इक बगल में रोटियाँ।
इक बगल में नींद होगी, इक बगल में लोरियाँ।।
हम चाँद पे, रोटी की चादर डाल के सो जाएँगे।
और नींद से कह देंगे लोरी कल सुनाने आएँगे।।‘
लातूर, विधर्भ की सूखे की खबरों और कवि-अभिनेता पियूष मिश्रा की इन पंक्तियांे का सबब सोचने समझने से पहले बुंदेलखंड के एक जिला महोबा से एक खबर के निहितार्थ जानने चाहिए। यहां से यह खबर आती है ‘रोटी बैंक’ चलाने की। इस बैंक के संचालक कर्ताधरता तारा पाटकर हैं जिन्हें यहां के लोगों की भूख खींच लाई। आष्चर्य है कि बैंकों की स्थापना का सिद्धांत ‘संसाधन का अतिरेक’ होता है वहीं इस ‘रोटी बैंक’ की स्थापना इसलिए की जा रही है कि लोग भूख से मर रहे हैं अर्थात रोटी की कमी है। इस रोटी बैंक से गरीब, बुजुर्गों और भिखारियों को रोटी दी जा रही है। पिछले एक साल से तारा पाटकर इस इलाके में भूख से होने वाली मौतों को मात दे रहे हैं। वजह, सूखा जो अकाल ही भूख का रूप लेकर समस्त बुंदेलखंड को सुनसान बनाने को आतुर है। भूख के लिए लोगों को खून और अपने बच्चें न बेचने पड़े और घास की रोटियां न खानी पड़े, इसके लिए समस्त बुंदेलखंड के लिए तारा पाटकर की यह पहल बहुत ही छोटी है पर यह रोज होने वाली सरकारी पैकेजनुमा घोषणाओं से बड़ी है।
पिछले साल नवंबर में सामाजिक कार्यकर्ता एवं आंदोलनकर्मी योगेन्द्र यादव ने अपने स्वराज अभियान के जरिए ‘‘बुंदेलखंड ड्राॅट इम्पैक्ट असेसमेंट सर्वे’’ किया। यह सर्वे 27 तहसीलों के 108 गांवों में किया गया। इस सर्वे में सबसे गरीब 399 सहित कुल 1206 गरीब परिवारों को षामिल किया गया। सर्वेक्षण के सबसे चिंताजनक संकेत भुखमरी और कुपोषण से सम्बधित है। पिछले एक महीने के खान-पान के बारे में पूछने पर पता लगा कि एक औसत परिवार को महीने में सिर्फ 13 दिन सब्जी खाने को मिली, परिवार में बच्चों या बड़ों को दूध सिर्फ 6 दिन नसीब हुआ और दाल सिर्फ 4 दिन। गरीब परिवारों में आधे से ज्यादा ने पूरे महीने में एक बार भी दाल नहीं खायी थी और 69 प्रतिषत ने दूध नहीं पिया था। गरीब परिवारों में 19 प्रतिषत को पिछले माह कम से कम एक दिन भूखा सोना पड़ा।  
सर्वे से उभर के आया कि कुपोषण और भुखमरी की यह स्थिति पिछले 8 महीनों में रबी की फसल खराब होने से बिगड़ी है। सिर्फ गरीब ही नहीं, लगभग सभी सामान्य परिवारों में भी दाल और दूध का उपयोग घट गया है। यहाँ के 79 प्रतिषत परिवारों ने पिछले कुछ महीनों में कभी ना कभी रोटी या चावल को सिर्फ नमक या चटनी के साथ खाने को मजबूर हुए हैं। 17 प्रतिषत परिवारों ने घास की रोटी (फिकारा) खाने की बात कबूली। सर्वे के 108 में से 41 गावों में इस दौरान भुखमरी या कुपोषण की वजह से मौत की खबरें भी आई। इस सर्वे में आसन्न संकट के कई और प्रमाण भी सामने आये। एक तिहाई से अधिक परिवारों को खाना मांगना पड़ा, 22 प्रतिषत बच्चों को स्कूल से वापिस लेना पड़ा, 27 प्रतिषत को जमीन और 24 प्रतिषत को जेवर बेचने या गिरवी रखने पड़े हैं। मनुष्यों पर आश्रित जानवरों की तो और भी अधिक दुर्गति हो रही है। बुंदेलखंड में दुधारू जानवरों को छोड़ने की ‘अन्ना’ प्रथा में अचानक बढोत्तरी देखी गई है। 
बुंदेलखंड में कुल 13 जिले हैं जिनमें से 7 उत्तर प्रदेश में आते हैं जबकि 6 मध्यप्रदेश में आते हैं। 2011 की जनगणना के अनुसार बुंदेलखंड की कुल आबादी 1 करोड़ 80 लाख है। जिसमें से करीब 79 फीसदी आबादी ग्रामीण इलाकों में रहती है और इनमें एक तिहाई से ज्यादा घर ऐसे हैं जो गरीबी रेखा से नीचे आते हैं। बुंदेलखंड का इतिहास बताता  है कि 19वीं से 20वीं सदी के दौरान 12 बार सूखा और अकाल झेले चुका हैं बुंदेलखंड। सामान्यरूप से हर 16-17 साल में यहां सूखा पड़ा रहा। स्वराज अभियान ने अपने सर्वेक्षण में पाया कि बुन्देलखण्ड के सबसे गरीब परिवारों के लिए भुखमरी की नौबत आ सकती है। इस क्षेत्र में लगातार तीसरे साल सूखा पड़ा है। साथ ही इस साल ओलावृष्टि, अतिवृष्टि से रबी की फसल भी नष्ट हो गयी थी। बुंदेलखंड इलाके के 60 प्रतिशत से अधिक लोग गरीबी रेखा के नीचे जीवन जीने को विवश हैं। अधिकांशतः यहाँ  सीमांत कृषक ही है। 25 फीसदी किसान एक से दो हेक्टेयर भूमि पर अपना और परिवार का गुजर-बसर करते हैं। जब खेती और जिंदगी पर कोई संकट आता है तो लिया गया कर्ज ही इनकी जान का जान का दुश्मन बन जाता है। जिसके आंकडे़ बहुत ही भयावह है। 2015 जिसके चलते यहां के 3223 किसान 2009 से 2014 के बीच आत्म ह्त्या कके अपुष्ट आकड़ों के अनुसार 440 किसान या कृषि से अपनी जीविका चलाने वाले अपना सुकून मौत में ढूढ रहे हेैं। नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो के आंकड़े बताते हैं कि 2009 में 568, 2010 में 583, 2011 में 519, 2012 में 745 और 2014 में 58 किसानो ने आत्महत्या की।
पिछले कुछ वर्षो में बुंदेलखंड मानसून अनियमित सा हो गया। कभी वर्षा तो कभी वर्षा की कमी, यह स्थिति निरंतर चल रही है। उस पर ओला और पाला की मार , तालाबों, बांधों और कुओं का सूख जाना, ऐसे कुछ कारण हैं जिसनेे यहां की खेती को पूरी तरह से बर्बाद कर दिया। फलस्वरूप खेती पर निर्भर 80 फीसदी आबादी के सामने अब भुखमरी के हालात उत्पन्न हो गए। इसलिए इन इलाकों से पलायन को वजह मिल गई है। प्रवास संस्था की एक सर्वे रिपोर्ट के अनुसार, एक दशक में करीब 62 लाख लोग बुंदेलखंड छोड़ कर जा चुके हैं। काम की तलाश में किसान मजदूर बनकर दिल्ली, पंजाब, हरियाणा, गुजरात और महाराष्ट्र जैसे राज्यों में मजदूरी के लिए विवष हैं। पल्स पोलियो अभियान के दौरान एकत्रित हुए आंकड़ों और बाद में गायब हुए परिवारों की स्थिति को इस संस्था ने आधार बनाया। जिससे यह भयावह सत्य पता चलता है। बुंदेलखंड का शायद ही कोई ऐसा गांव हो, जहां घरों में ताला न लटका हो। 
ज्यों ज्यों आसमान का पारा चढ रहा है त्यों त्यों फौरी राहत की घोषणा हो रही है। मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने बुंदेलखंड सहित सूखा प्रभावित क्षेत्रों के किसानों के लिए कल 867.87 करोड़ रूपए मंजूर करने के बाद बुंदेलखंड के सातों जिलों में पेयजल समस्या से निपटने के लिए इंडिया मार्क-2 के 666 और हैंडपंप लगाने का निर्देश दिया। हैंडपंप की लागत राशि भी 18.42 करोड़ रूपए से बढाकर 21.57 करोड़ रूपए कर दी गई है। लेकिन सरकार को यह समझने दिक्कत क्यों है कि जब जमीन में पानी ही नहीं है तो हैंडपंप पानी कैसे दे सकता है? जलपुरूष कहें जाने वाले राजेंद्र सिंह बुंदेलखंड की इस समस्या का हल नदियों के पुर्नजीवन में ढूढ रहे हैं। नदियों का जलस्तर तेजी से नीचे जा रहा है, इस समय जमीन की तीसरी सतह का पानी निकाला जा रहा है, जिससे धरती का पेट खाली हो रहा है। अगर इस जमीन के खाली पेट को भरा नहीं किया गया तो यहां के लोगों को पीने का पानी कभी नहीं मिल पाएगा। जमीन का खाली पेट भरना और आदमी का खाली पेट भरने में एक अन्योन्याश्रित संबंध है जिसको जितनी जल्दी समझ लिया जाए उतना ही हमारे लिए अच्छा होगा।
(आंशिक रूप से 'शुकलपक्ष' पत्रिका मई अंक में प्रकाशित )

बुधवार, 1 जून 2016

शादी सात जन्मों का बंधन है!

‘विवाह एक पवित्र संस्कार है।’ ‘षादी सात जन्मों का बंधन है।’ ‘जोड़ियां ऊपर से बन कर आती हैं।’ ‘पति-पत्नी का रिष्ता एक पवित्र बंधन है’...आदि, इत्यादि। ये कुछ ऐसी बातें हैं जो हमारे अंदर सदियों से पैंबस्त की गई हैं। और समाज इसी बने बनाएं मूल्यों पर चल रहा है। जब कोई बात इस मूल्य रूपी ढांचे को तोड़ता नजर आता है तो हम बड़े आराम से षुर्तुगमुर्गी रवैया अख्तियार कर लेते हैं और तत्काल उस समस्या या बुराई से ही इंकार कर देते हैं। यह हमारे समाज के दोहरे रवैये को दर्षाता है। जोकि हमारे लिए कहीं अधिक घातक है।
ऐसा ही कुछ रवैया हम ‘मैरिटल रेप’ या वैवाहिक बलात्कार को लेकर दिखा रहे हैं। संयुक्त राश्ट्र की संस्था यूनीसेफ कहती है कि भारत में 15-19 साल की उम्रवाली 34 फीसदी विवाहित लड़कियां को अपने पति या साथी के हाथों शारीरिक, यौन या भावनात्मक हिंसा झेलनी पड़ती है। 77 फीसदी पत्नियां कम से कम एक बार अपने पति या साथी के द्वारा जबरदस्ती यौन संबंध बनाने को मजबूर की जाती हैं। इसलिए यूनीसेफ ने सलाह दी थी कि भारत में मैरिटल रेप को क्रिमिनल आफेंस में षामिल कर लेना चाहिए। लेकिन दो साल पहले दी गई इस सलाह को हमारे यहां दूसरी तरह की बहस का मुद्दा बना दिया गया। यहां तक कहा जा रहा है कि इस तरह का कोई भी कानून हमारी वैवाहिक संस्था के लिए घातक होगा और फलस्वरूप सदियों से चली आ रही पारिवारिक व्यवस्था छिन्न-भिन्न हो जाएगी। जो कि बहुत ही अतिपूर्ण नजरिया है।

हमारे समाज मे सेक्स इतना टैबू है कि इसको लेकर कोई बात नहीं जा सकती है चाहे वह एक सामाजिक बुराई का ही रूप क्यों न ले लें। अगर हम इस बात को ही मानने के लिए तैयार नहीं है कि बलात्कार की ज्यादातर घटनाएं घर की चाहरदीवारी में होती है और रेप की इन घटनाओं में से 09-15 फीसदी वैवाहिक बलात्कार के मामले होते हैं। तो आगे की चीजों को हम किस प्रकार तबज्जो देगें? हाल ही में इस मामले में इंदिरा जयसिंह द्वारा दाखिल की गई रिपोर्ट में मैरिटल रेप के अपराधीकरण की सिफारिश की है। इतना ही नहीं निर्भया केस के बाद बनी जस्टिस वर्मा आयोग द्वारा मैरिटल रेप को अपराधों की श्रेणी में शामिल किए जाने की सिफारिश की जा चुकी है। बावजूद इसके हम या हमारी सरकार इस मामले को ‘पवित्र बंधन’ से अधिक मानने को तैयार नहीं दिख रही है। जबकि अमेरिका में 1993 में ही मैरिटल रेप को अपराध की श्रेणी में षामिल कर लिया गया था।
मैरिटल रेप को अपराध न समझने को लेकर इतना ऊहापोह सरकार क्यों दिखा रही है। एक महिला के साथ जब रेप होता है तो उसका प्रभाव उम्र भर उस महिला के साथ रहता हैं। वह जिंदगी भर उस हादसे को नहीं भूल सकती। फिर घर के अंदर बेडरूम में वह यह सब झेलती है तो उसका असर उस पर इतना कम करके क्यों आका जा रहा है? केवल इसलिए कि वह अपराध कोई और नहीं बल्कि उसका पति परमेष्वर कर रहा है? यह और कुछ नहीं बल्कि हमारी स्त्रियों के प्रति संवेदनहीनता को ही दिखाता है। यह सब उसी समाज में सही ठहराया जा सकता है जहां स्त्रियों को दोयम दर्जे का प्राणी समझा जाता है। स्त्रियों के प्रति अगर हमारी संवेदनषीलता जरा भी है तो इस मुद्दे पर सोचने के लिए हम मजबूर हो जाएंगे।
मैरिटल रेप मुद्दे पर जब पुरुशों की राय ली जाती है तो उनका वही घिसा-पिटा जवाब होता है कि ऐसे तो हर घर का पति जेल में ही होगा या फिर कानून का मिस-यूज खूब किया जाएगा। कुछ पतियों का यह भी मानना है कि षादी की ही किसलिए जाती है? कहने का अर्थ है कि पति रूपी पुरुष यह बात मानने के लिए कतई तैयार ही नहीं है कि षादी जैसी  पवित्र संस्था में ‘रेप’ जैसा भी कुछ होता है। यह बिलकुल वैसा ही है जब घरेलू हिंसा को लेकर कानून बनाया गया था तब भी लोगों के तर्क इसी तरह के थे कि यह कानून परिवार को तोड़ने का काम करेगा। भला पति यदि अपनी पत्नी को मारता-पीटता या बदजुबानी करता है तो इसमें किसी बाहरी व्यक्ति को क्यूं हस्ताक्षेप करना चाहिए? यह हमारा अपना घरेलू मामला है। पर अंततः जब सरकार ने अपनी संवेदनषीलता दिखाई और घरेलू हिंसा अधिनियम-2005 बनाया तब हकीकत सबके सामने आ पाई।
कुछ समय में ही मैरिटल रेप एक बहस का मुद्दा बन गया है और बड़े रूढ़िवादी इसके अपराधीकरण किये जाने को विवाह संस्था के लिए खतरा बता रहे है। साथ ही साथ लॉ कमीशन भी इस मामले में अल्पज्ञता दिखा रहा है। विधि आयोग की 172वीं रिपोर्ट ने ‘वैवाहिक रिश्ते के साथ अत्यधिक हस्तक्षेप’ बताकर इस प्रस्ताव को खारिज कर दिया। इन सबके बीच यह प्रष्न उठता है कि षादी नामक संस्था का भार क्या सिर्फ नारी को ही उठाना पड़ता है? यदि वह अपने बारे में एक प्राणी मात्र होने के कारण सोचती है तो उसे अपराध बोध का भय क्यों लगा रहता है? जिसके कारण उसे मानसिक और षारीरिक रूप से इतना संघर्ष करना पड़ता है जिसका परिणाम अंततः उसे अपनी जिंदगी दे कर चुकाना पड़ जाता है। इससे तो यही लगता है कि आने वाले दिनों में भी ‘शादी की पवित्रता’ और गरीबी, अषिक्षा के नाम पर पतियों द्वारा किया जाने वाला बलात्कार परिवार संस्था को बनाए रखने के लिए ‘वैध’ ही बना रहेगा!

( 'मेरी सजनी' के जून अंक में प्रकाशित )